पश्चिम बंगाल की यात्रा पर था। नम दोपहरी और हवा में एक विचित्र सी घुटन थी। एक युवक पसीने से लथपथ, चेहरे पर दुविधा और आंखों में जिज्ञासा लिए मिलने आया। आते ही कहना शुरू कर दिया कि उने सारे धर्मशास्त्र पढ़ डाले हैं। अनेक संतों-महंतों से मिला, लेकिन आज तक उसके एक सवाल का जवाब नहीं मिला है। उसने मेरे सामने भी सवाल दोहराया- ‘मैं कौन हूं?’
उसकी जिज्ञासा को सहेजते हुए मैंने समझाने की कोशिश की कि कौन दे सकता है इस प्रश्न का उत्तर। कोई दूसरा कैसे बताए कि आप कौन हैं। सवाल अपने बारे में है, किसी और के बारे में नहीं, यह खुद के जानने समझने की बात है।
करोड़ों वर्षों तक दुनिया भर के शास्त्र पढ़कर भी कोई आदमी अपना परिचय उनमें कहां से पाएगा और हजारों जन्मों तक साधु-संतों के पैरों के आगे मस्तक रगड़ते भी रहें, तो भी कोई आपका परिचय आपको कैसे करा पाएगा। यह बात तो खुद से पूछने और जानने की है। दरअसल हमने मन की गहराइयों में उतरकर कभी देखा ही नहीं कि वहां कितना गहरा खजाना गड़ा है। अगर हम अपने आप से वास्तव में कुछ पूछते हैं, तो उसका उत्तर मिलेगा ही। पूछने के नाम पर अभिनय कर रहे हैं तो यह खुद के साथ ठगी है। हमारा अंतर्मन सब कुछ जानता है। हमारा प्रश्न भी उत्तर भी। अगर जिज्ञासा की बाती भीतर कहीं जल उठी है तो ज्ञान का प्रकाश होगा ही।
हम तो उस युवक की तरह बाहर-बाहर ही भटक रहे है। वह संन्यास ग्रहण करने के लिए उतावला था। वह पुराना चोला उतारकर नया चोला पहनना चाहता था। वह युबक तो सिर्फ एक उदाहरण है। प्रश्न सारी मानवता का है। हजारों वर्षों से इसका जवाब पाने के लिए पंथो, ग्रंथों, संतों-महंतों को बदला जा रहा है। वेश और परिधान, नाम और संप्रदाय, मंत्र और लॉकेट बदले तथा धारण किए जा रहे हैं। सब कुछ धारण किया जा रहा है, केवल अपने को नहीं। जब तक अपने को भीतर से बदला और धारण नहीं किया जाएगा तब तक अंदर की प्यास को बुझाना मुश्किल है।
इसलिए भगवान महावीर ने कहा कि अपने से खोजो सत्य को। तुम केवल अपने माध्यम से पहुंच सकोगे अपने तक। उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम मेरी शरण में आओ। उन जैसा निवैयक्तिक व्यक्तित्व संसार में विरल है। वे भी किसी के अनुयायी नहीं बने, आत्मदीक्षित थे। इसलिए वे कहते हैं कि सत्य को पाने या खुद को जानने का रास्ता अपने पास ही है। दूसरे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। इससे अधिक आशा करना, उन पर निर्भर करना छलावा है।
-आचार्य रूपचन्द्र