जब भी कोई दरवाजे पर दस्तक देता है या घंटी बजाता है तो अंदर से पूछा जाता है कि ‘कौन है’ बाहर खड़ा आदमी जवाब देता है- मैं। आवाज पहचानी होती है तो दरवाजा खुल जाता है अन्यथा फिर पूछा जाता कि ‘मैं कौन कोई नाम भी है या नहीं’ यह सवाल सदियों से पूछा जा रहा है और जवाब भी वही आ रहा है। ‘मैं ‘ किसी न किसी नाम और पहचान से जुड़ा हुआ है लेकिन आत्मिक या आध्यात्मिक स्तर पर यह आज तक का सबसे उलझा हुआ रहस्य है कि ‘मैं कौन हूं।
ऐसा कहने वाले भी कम नहीं है कि उन्होंने सारे धर्मशास्त्र पढ़ डाले, अनेक संतो-महंतों से मिले, लेकिन आज तक इस सवाल का जवाव नहीं मिल सका है। अब भला बताएँ कि दूसरा कौन दे सकता है इसका जवाब। यह सवाल अपने बारे में है, किसी और के बारे में नहीं। दुनिया भर के शास्त्र पढ़कर भी क्या यह संभव है कि कोई अपना परिचय जान ले हजारों जन्मों तक संतों के पैरों के आगे मस्तक रगड़ते रहे तो भी कोई आपका परिचय आपसे कैसे करा देगा यह बात तो स्वयं से पूछने की है। स्वयं नहीं जान सकते तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन स्वयं का जानना असंभव लगता है। हमें पता नहीं कि हम कितना जानते हैं। मन की गहराइयों में उतरकर कभी देखा कि वहां कितना गहरा खजाना गड़ा है। अगर हम अपने आपसे वास्तव में कुछ पूछते हैं तो उसका उत्तर मिलेगा ही। हा, पूछने का अभिनय करना हो तो और बात है।
हमारा अंतर्मन सब कुछ जानता है- हमारा प्रश्न भी उत्तर भी। अगर जिज्ञासा की बाती भीतर कहीं जल उठी है तो जान का प्रकाश होगा ही। न होने का कोई कारण नहीं। हम तो बाहर-बाहर ही भटक रहे हैं। पहचान का यह प्रश्न किसी अकेले का नहीं, सारी मानवता का है। हजारों वर्षों में इसका उनर पाने के लिए पंचों, ग्रंथों और संतों-महंतों को बदला जा रहा है। देश और परिधान बदले जा रहे है, नाम और संप्रदाय बदले जा रहे हैं। धारण किए जा रहे हैं नए नाम, वेश परिधान, नए मंत्र, लॉकेट में नए-नए गुरु और भगवान की तस्वीरें तथा नए-नए मठ- आश्रम-मंदिर। सब कुछ बदला जा रहा है, केवल अपने को नहीं बदला जा रहा है। जब तक अपने को भीतर से नहीं बदला जाएगा, अपने भीतर को धारण नहीं किया जाएगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। इधर-उधर, दर-दर भटकना कुछ काम नहीं आने वाला है। पूरी तरह से व्यर्थ साबित होंगे ये भीतर की प्यास बुझाने के लिए, भीतर का समाधान देने के लिए।
भगवान महावीर से पूछा गया कि कौन सा उपाय है सत्य से साक्षात्कार का और किस रास्ते से होंगे आत्म-दर्शन उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, अपने से खोजो सत्य को। केवल अपने में ही हो सकेंगे आत्मा और परमात्मा के दर्शन। तुम केवल अपने माध्यम से पहुंच सकोगे अपने तक। धर्मशास्त्र और परंपराएं मात्र संकेत करते हैं सत्य की ओर। पर सत्य प्राप्ति का माध्यम हम स्वयं हो सकते हैं। संकेत उन्ही के लिए महत्वपूर्ण है जो सत्य को पाने, स्वयं को खोजने के लिए चल पड़े हैं। जो नहीं चले है उनके लिए इन संकेतों का कोई मूल्य नहीं है। ‘मैं कौन हूँ’ की खोज हो या सत्य की एक ही बात है। दोनों में कोई फर्क नहीं है।
-आचार्य रूपचन्द्र