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स्वभाव में सरलता है तो नैतिकता स्वयं चली आएगी

आप भी कहते या सोचते होंगे कि यह एक अजीब व्यथा-काल है। हर तरफ अराजकता और अफरा तफरी है। अनुशासनहीनता और आक्रामकता है। किसी पर किसी का विश्वास नहीं है। निश्चित रूप से यह समय आपको डरा रहा होगा। आप खुद भी मानसिक तौर पर पीड़ित प्रताड़ित महसूस करते होंगे। कोसते भी होंगे कि ईश्वर या भाग्य ने आपको कहां लाकर पटक दिया। वह पुराना मुहावरा भी दोहरा रहे होंगे कि इस दिन को देखने के लिए जिंदा क्यों है? यह समस्या सिर्फ आपकी नहीं, आज के ज्यादातर लोगों की, हम सबकी है। लेकिन क्या हमने कभी यह सोचने की जहमत उठाई है कि यहां तक लाने के लिए कौन जिम्मेदार है? हम तो बस खुद को छोड़कर बाकियों पर ऊंगली उठा देते हैं। समडा लेते हैं कि दुनिया भी यही मान रही होगी। भूल जाते हैं कि दुनिया जब दूसरों को दोषी ठहरा रही होगी, उस सूची में हम भी होंगे। दरअसल यह दौड़ने के पहले ही हांफने की स्थिति है जो हमें किसी निश्चय पर तो नहीं पहुंचने देती, दुश्चिंता से भी मुक्त नहीं होने देती है। इसे अज्ञानता कहा जाता है।

महावीर ने कहा है, ‘समयोचित कार्यक्रमों का विवेकपूर्वक ध्यान रखने से कर्तव्य मूढ़ता आदि अज्ञानता सहज ही समाप्त हो जाती है।’ हम जब यह स्वीकार करना सीख जाएंगे कि आज की स्थिति के लिए हम भी जिम्मेदार हैं, तभी से खुद में बदलाव महसूस करने लग जाएंगे। हमें भान हो जाएगा कि शत्रु कहीं बाहर नहीं है, हमारे भीतर फन फैलाए हुए है। हमारी परंपरा कहती है ‘अपने से युद्ध कर। बाहर के युद्ध से क्या?’ भीतर शत्रु हैं, इसीलिए बाहर शत्रु हैं। भीतर के शत्रुओं का नाश नहीं होगा तो बाहर के शत्रु नष्ट होकर भी नष्ट नहीं होंगे। खून की हर बूंद नए दैत्य को जन्म देने वाली होगी। इसीलिए खून को ही दूध में बदलना होगा। अगर संकेतों की भाषा में समझें तो यही मानव-धर्म है। इस धर्म की पहली शर्त है कि हममें सरलता हो। अगर यह होगी तो नैतिकता और पवित्रता स्वयमेव चलकर हमारे पास आएगी।

सरलता से सुख-शांति मिलती है’, पांच हजार साल पहले मिस्र के प्रागैतिहासिक युग के एक सम्राट अपने बेटे के नाम यह लिखकर मर गए। दो हजार वर्ष पूर्व नजारच (इस्राइल) में एक बढ़ई का बेटा कह गया, ‘धन्य हैं वे जो सरल हैं क्योंकि प्रभु को वे ही देखेंगे।’ पवित्रता और सादगी, प्रेम और सदाचार की बात आज भी हर देश की हर भाषा की नीति पुस्तक कहती है। लेकिन हम पढ़कर भी न केवल अज्ञानी बल्कि दुराग्रही भी बने रह जाते हैं। तीन हजार वर्ष पूर्व दुर्योधन के सामने समस्या थी कि यह धर्म को जानकर भी उसका आचरण नहीं कर पाता, अधर्म को जानकर भी उससे निवृत्त नहीं हो पाता था। वह समस्या आज भी हर व्यक्ति के मन की है।

समाधान महात्मा गांधी में दिख सकता है। गांधी ने न केवल आत्मावलोकन किया बल्कि संसार को दृष्टि भी दी। सत्य को प्रभु मानने वाला यह व्यक्ति प्रेम-सत्ता और आत्म-सत्ता की अदम्य शक्ति का साकार प्रतिरूप था जिसने राष्ट्र और समाज के सारे मानस को रूपांतरित किया। एक बार ही सही, यह कहने को तैयार हो जाएं कि हम किसी के सामने अवरोध नहीं खड़ा करेंगे। अगर कोई समस्या है तो उसे हटाने अकेले चल पड़ेंगे। फिर देखिए बदलाव की हवा ऐसी चलेगी कि आप खुद झूमने लगेंगे।

-आचार्य रूपचन्द्र

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