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स्वभाव से दूर निकल जाना खुद से भी दूर चले जाना है

धर्म का संबंध मानव जीवन के आधारभूत नियमों से है। जीवन और जगत के अन्तसंबंधों को समझने की कोशिश में मानव ने धर्म को पाया। लेकिन कालांतर में धर्म विविध संप्रदायों को उभ्दूत कर उनमें जुड़ गया। मूलतः धर्म कोई संप्रदाय नहीं है। वह व्यक्ति और समाज को धारण करने वाला है। भगवान महावीर ने इसे हमारा स्वभाव माना है।

गीता ने तो यहां तक कहा है कि धर्म का स्वल्प अंश में भी धारण महान भयों से बचाता है। धर्म का संदेश प्रेम है, लेकिन सबको पता है कि धर्म के नाम पर अधर्म को पोषण मिला। इसी वजह से इसके प्रति लोकमानस शंकाशील हो गया। दूसरी ओर अगणित संप्रदाय अपने को सच्चा धर्म और बाकियों को पाखंड घोषित करने में लगे रहे। संप्रदाय तक सीमित रहने के कारण उनकी दृष्टि अभेद से भेद की और चली गई। इसलिए आचारीय मूल्यों की उपेक्षा होने लगी। यानी चिंतन के धरातल पर उपासना पक्ष को तो पोषण मिलता रहा, लेकिन आचार पक्ष एकदम उपेक्षित हो गया। आज हमारा सारा ध्यान जीवन के भौतिक निर्माण पर ही आकर ठहर गया है। जीवन में सुख-सुविधा के जितने साधन हो सकते हैं, बनाए जा रहे हैं। लेकिन खुद आदमी को भीतर से अनबना ही छोड़ दिया गया। परिणामतः विश्व मानवता की देह वस्त्राभूषणों से अलंकृत होती रही, लेकिन उसमें प्राणों की प्रतिष्ठा नहीं हो पाने से वह मिस्र के प्राचीन ताबूतों में रखी ममी की तरह हो गयी है।

आज धर्म के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या वह वर्तमान जीवन की समस्याओं का कोई समाधान दे सकता है। अगर नहीं, तो बुद्धिजीवी उसकी सत्ता को भीतर से स्वीकार नहीं कर सकेगा। यह प्रश्न धर्म के पूरे अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। इसका इसी स्तर पर विचार किया जाना अपेक्षित है। संप्रदायपरक चिंतन के पास इसका कोई सर्वसम्मत उत्तर नहीं है। अगर इसका हल भी संप्रदायपरक चिंतन के आधार पर करने का प्रयास करेंगे तो संप्रदायों की जो नियति होने वाली है, वही धर्म की भी होगी।

दुर्भाग्य से धर्म विज्ञान के विरोध में खड़ा हो गया। जबकि धर्म स्वयं भी अंतःकरण का विज्ञान है। हजारों वर्षों से धर्म ने व्यक्ति के अंतःस्थल में जाकर अनेक सत्य प्रकट किए, उसी आधार पर उसकी सत्ता मानवता के लिए जीवंत और प्रभावक रही। आज धर्म दो तरह से अपने ही हनन में लगा हुआ है। उसने भीतर का प्रयोगात्मक पक्ष छोड़ दिया और विज्ञान को चुनौती देने लगा। विज्ञान के विरोध का अर्थ है प्रयोग, अनुसंधान तथा बौद्धिकता का विरोध, जो धर्म के स्वभाव को ही खोखला कर रहा है।

-आचार्य रूपचन्द्र

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