आप जल-स्नान प्रतिदिन करते हैं। अगर न नहाएं तो चैन नहीं मिलता है। स्नान करने से हम समझते हैं कि इससे शरीर स्वस्थ रहता है, आलस्य दूर होता है और तन में ताजगी आती है। लेकिन मन का अवसाद कैसे दूर होगा, चेतना में ताजगी और जागृति कैसे आएगी, इस पर हम ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि बाहर से ज्यादा अंदर स्वच्छ और शुद्ध रहना आवश्यक है। इसके लिए एकमात्र साधन है, जल-स्नान की तरह मंत्र-स्नान करें। लेकिन जैसे ही मंत्र की बात आती है, लोग उस पर धर्म, आस्था और परंपरा का मुलम्मा बढ़ा देते हैं। यह ऐसी बुनियादी भूल है जो हमारी मूल प्रकृति और चेतना को सूली पर टांग देती है।
मंत्र दरअसल संकल्प और सकारात्मक ऊर्जा का नाम है। यह मन की एक दशा है जो सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित करती है। स्नान के लिए जैसे जलधारा में पूरी तरह भीगते हैं, वैसे ही हम अपने मन को और चेतन को पूरी तरह मंत्र-धारा में भिगोएं तो पाएंगे कि अंतःकरण तरोताजा और सकारात्मक ऊर्जा से भर गया है। इस अनुभव के लिए धारा में गहरे उतरना होगा। हम ऊपर से चाहे जितना जगमग रहें, अगर आंतरिक संसार में स्वच्छता, चमक और शुद्धता नहीं है तो मूल्यवादी जीवन जी ही नहीं सकते। किसी तरह का शुभ परिवर्तन भी संभव नहीं है।
प्रश्न उठता है कि आंतरिक संसार तक पहुंचें कैसे? यह मुश्किल काम नहीं है। ऐसा कोई नहीं होगा जिसे यह न मालूम हो कि उसके अंदर देवता भी बैठा हुआ है और दानव भी। जब हम सेवा-उपकार करने की स्थिति में होते हैं तब करुणा उमड़ आती है। यह दैवी-संस्कार है। लेकिन जब गुस्से में होते हैं या बुराई की ओर प्रवृत्त होते हैं तो माना जाता है कि हमारे अंदर का राक्षस जाग गया है। अच्छाई और बुराई, दोनों ही भाव हमारे अंदर हैं। दोनों में हमेशा जंग छिड़ी रहती है। यह घोषित और अनुभूत सत्य है कि जीत अंततः अच्छाई की ही होती है लेकिन बुराई के सामने समर्पण के कारण नुकसान बहुत हो चुका होता है। यह जो हमारे भीतर बुराई है, यह अपनी मर्जी से हावी नहीं होती है। यह आने के पहले एक बार चेतावनी देने के साथ-साथ हमसे अनुमति भी मांगती है। हम जब उस चेतावनी को गंभीरता से नहीं लेते हैं तो उसे पांव पसारने का मौका मिल जाता है।
हम यह माने कि जैसे हमारे विचार होते हैं, हमारा व्यक्तित्व भी उसी अनुरूप ढल जाता है। प्रयोग के तौर पर हम राम-नाम का ध्यान करें तो पाएंगे कि मन के सतह पर आसुरी ताकतों के खिलाफ लड़ने वाले एक मर्यादा-पुरुष का चित्र उभर आया है। महावीर और बुद्ध का ध्यान करें तो देखेंगे कि भीतर त्याग और तपस्या की तस्वीरें जगह बना रही हैं। क्राइस्ट का स्मरण करते ही क्षमा-भाव अंदर उतर रहा है। गांधी का नाम जेहन में आते ही अहिंसा और शांति गूंजने लगेगी। यही है मंत्र-स्नान जो आपको दैवीय और मानवीय गुणों से भरने लगता है। लेकिन इसके लिए संकल्प-पूर्वक बैठना पड़ेगा। मन की केमिस्ट्री को समझना पड़ेगा। मन पर लगाम भी लगानी पड़ेगी। खुद इस मंत्र का पाठ करें कि यह मन मेरा है, किसी दूसरे का नहीं। तब महसूस होगा कि कोई सकारात्मक ऊर्जा अंदर प्रवाहित होने लगी है। इसे चाहे तो परमात्मा का आशीर्वाद भी कह सकते हैं, जिसको जीवन के हर उतार-चढ़ाव में आप कदम-कदम पर साथ पाएंगे।
-आचार्य रूपचन्द्र