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ऐसी दृष्टि चाहिए जो शिवत्व को अंदर से जगा दे

भस्मासुर की प्रसिद्ध कथा सभी को मालूम है कि कैसे तप के बल पर उसने शिव से यह वरदान मांग लिया कि जिसके भी सिर पर हाथ रखे, वह भस्म हो जाए। शिव ने तथास्तु तो कह दिया, लेकिन वे संभावित अनिष्ट को भी भांप गए। भस्मासुर ने सामने किसी को न देखकर अपना पहला प्रयोग शिव पर ही आजमाना चाहा। शिव भागे। वे आगे-आगे और भस्मासुर पीछे-पीछे। तब विष्णु को मोहिनी रूप धरकर भरमासुर को रिझाने के लिए सामने आना पड़ा। भस्मासुर अपने ही जाल में फंस कर भस्म हो गया। उसे मिला वरदान स्वयं उसी के लिए दारुण अभिशाप बन गया। अपने तप से वह शिवत्व का गुण भी प्राप्त कर सकता था, लेकिन कुप्रवृत्ति के वश में आ गया।

यह जीवन का एक अनुभूत सत्य है कि भीतर यदि शिव प्रकट नहीं हैं तो अपनी ही शक्ति अपने विनाश का कारण बन जाती है। वरदान भी अभिशाप बनकर जीवन को जला डालता है। शिवत्व के अभाव में मनुष्य को यदि शक्ति प्राप्त हो भी गई तो वह अपने तथा दूसरों के अमंगल की ही हेतु बनती है। आज की सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हम प्रवुद्ध और समाज-जीवी होने का ढिंढोरा पीटने के बजाए पहले भस्मासुर वाली मानसिकता को खत्म करें। रात-दिन घट रही कारगुजारियों के कारण मनुष्यता पर लगने वाले दाग को धोने के साथ-साथ आनंद और शांति का माहौल कायम करें। हर विपरीत परिस्थिति में अपने आप से सहृदय होकर अवश्य पूछे कि हमें क्या करना चाहिए। यह तय मानिए कि जो जवाब आएगा. वह आपको भी चकित कर देगा।

हमें यह दृष्टि चाहिए जो शिवत्व को सोए से जगा सके और हमें स्वतंत्रचेता बना सके। स्वतंत्रता की खोज आदिम समय से हो रही है। अध्यात्म की ज्योति का प्रकटन इसी खोज से हुआ है। यदि आदमी स्वतंत्र है तो दूसरे तंत्र की आवश्यकता ही नहीं है। यदि अपना तंत्र नहीं है तो दूसरा कोई न कोई तंत्र अराजकता और अनुशासनहीनता का भ्रम फैलाकर आपको नियंत्रित करने आएगा ही। इसलिए अध्यात्म एक दृष्टि देता है कि मनुष्य को खुद बचना चाहिए। अगर वह स्वयं को बदल ले तो संसार को भी बदलने का साहस कर सकता है। ऐसी हालत में समग्र व्यवस्थाएं भी अपने आप रूपांतरित होकर मनुष्यता के पक्ष में खड़ी दिखाई देने लगेंगी। लेकिन इसके लिए हमें संयम को साथ लेकर चलना होगा।

भगवान महावीर से पूछा गया कि आप संयम और नियम की बात क्यों करते हैं? आदमी का जीवन तो उन्मुक्त भोग के लिए है। महावीर मुस्कुरा कर कहते हैं, ‘श्रेष्ठ यही है कि तुम अपने से अपना अनुशासन साध लो नहीं तो बाहर से किसी न किसी शक्ति का तुम पर शासन आएगा।’ अनुशासन अपने पर अपना शासन है। जहां अनुशासन का अतिक्रमण होता है, वहीं से बाहरी शासन का आक्रमण होता है। इसलिए महावीर यह भी कहते हैं, ‘तुम अपने अनुशासन को निरंकुश मत होने दो, बाहर से कोई अंकुश ही नहीं आएगा।’ इस कथन में जीवन का वह सत्य मौजूद है जो आध्यात्मिक चिंतन की तरफ ले जाता है। हम और आप भी अगर गहराई से विचार करें तो स्पष्टतः अनुभव आएगा कि अध्यात्म, संयम और अनुशासन के विकसित हुए बिना शक्ति मिलना बंदर के हाथ में तलवार आने या सरको बरदान मिलने जैसा होगा।

-आचार्य रूपचन्द्र

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