लंदन से जीव विज्ञान में ऊंची डिग्री हासिल कर लौटे एक प्रोफेसर साहब मेरे पास आए। आते ही कई सवाल दागे। यह भी कहा कि वे गोल-गोल उत्तर और शास्त्रों की दुहाई नहीं मानेंगे। कई सवालों के बाद पूछा- क्या आपने आत्मा का अनुभव किया है? मेरे जवाब पर कि ‘आत्मा का अनुभव तो प्रतिक्षण होता है,’ उन्होंने कहा- उस अनुभव को दिखाइए। वे अड़े रहे कि वे उसी वस्तु के अस्तित्व को मानेंगे जिसे देख सकते हैं।
मैंने उन्हें सामने पीपल का पेड़ दिखाया जिसके पत्ते हिल रहे थे। उनसे पूछा कि उन पत्तों को कौन हिला रहा है। तो जवाब मिला- हवा। मेरे प्रतिप्रश्न पर उन्होंने झुंझलाते हुए कहा कि हवा को दिखाना कैसे संभव है। तों के बाद उन्होंने अपनी पूर्व धारणा में संशोधन किया कि जिसको सुना और सूंघा जा सके। स्पर्श से जिसका अनुभव किया जा सके, उन सबका अस्तित्व होता है। लेकिन आत्मा का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। हालांकि यह माना कि इंद्रियां शब्द, रूप आदि विषयों को ग्रहण करती हैं। जिसके पीछे होता है मन। अगर मन अन्यत्र हो तो आंख रूप को देखते हुए भी नहीं देखती। कान शब्द को सुनते हुए भी नहीं सुनते। इसके बाद इस सवाल पर कि क्या मन का अस्तित्व विज्ञान से सिद्ध किया जा सकता है, वे असमंजस में पड़ गए।
दरअसल इंद्रियां मन के सहयोग से ही काम करती हैं। जब यह काम नहीं भी कर रही होती हैं, तब भी मन होता है। ऐसे ही मन नहीं होने पर भी हम होते हैं। जब हम नींद में होते है या किसी चोट के कारण बेहाश हो जाते हैं, तब न इंद्रियां काम करती हैं, न मन और बुद्धि। फिर भी कोई है जो पूरे शरीर-यंत्र को कार्यशील बनाए रखता है। लेकिन प्रोफेसर साहब यह जानने को अड़े थे कि वह जो भी है, खोजने पर मिलता क्यों नहीं। जब कि उन्होंने शरीर के एक-एक अंग को काट-काट कर देखा है। भीतर कहीं चेतन या आत्मा नाम का कोई तत्व मिला ही नहीं।
शरीर के अन्य अंगों-उपांगों की तरह शल्य क्रिया में न मन मिलता है न बुद्धि और न सोच की किसी रासायनिक प्रक्रिया का विश्लेषण विज्ञान के पास है। फिर आत्मा के अस्तित्व पर संशय क्यों होता है, जबकि इसके होने का प्रमाण है। जब मन, बुद्धि काम न कर रहे हों, तब भी इस शरीर-यंत्र का संचालन जो कर रहा होता है, वही आत्मा है। उपनिषद ने आत्मा और शरीर के बारे में कहा है- आत्मा है रथी, शरीर है रथ, बुद्धि है सारथी, मन है लगाम, इंद्रियां हैं घोड़े, इंद्रिय विषय है चरागाह। आत्मा जब शरीर-रथ को छोड़ देता है तब रथ सही सलामत होते हुए भी बेकार हो जाता है।
-आचार्य रूपचन्द्र