हम रेगिस्तानी इलाकों की यात्रा पर थे। टीलों के अलावा और कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था। कच्चे रास्ते भी पता नहीं चल रहे थे। ऊंटों का काफिला गुजरता, तब थोड़ा रास्ता बनता हुआ दिखाई दे देता। लेकिन तेज हवा के झोंके के साथ वे निशान भी जाने कहां गायब हो जाते। हम एक गांव से चले थे और दूसरे गांव पहुंचना था। हममें किसी को भी उस मार्ग का पता नहीं था। ग्रामीणों ने बताया कि यहां से पूर्व की ओर चलते रहें। आगे जाकर एक नीम का पेड़ मिलेगा। वहां से दायें घूम जाएं। लगभग तीन मील चलने के बाद एक वट वृक्ष मिलेगा। उसके पास एक कुआं भी है। वहां से फिर बायें घूम जाएं। थोड़ी दूर पर एक ढाणी मिलेगी, जहां से केवल दो मील की दूरी पर आपकी मंजिल का गांव मिल जाएगा। हम इन्हीं संकेतों के आधार पर चले और कुछ घंटों में अपनी मंजिल पर पहुंच गए। क्या संबंध है हमारी मंजिल के साथ उस नीम के पेड़ का। वट वृक्ष, कुएं और ढाणी का। यदि आप उस मंजिल पर रहने वाले लोगों से इन सबके साथ संबंध के बारे में पूछंगे तो वे यही कहंगे कि कोई संबंध नहीं है। लेकिन जिसे पहले बार बिना किसी की मदद के पहुंचना है तो उसके लिए उन चीजों का बहुत महत्व है। वे उन पथिकों का आत्मविश्वास कायम रखते हैं कि आप सही रास्ते पर बढ़ रहे हैं।
वही महत्व है हमारी अंतर्यात्रा में उन धर्मशास्त्रों और धर्म-परंपराओं का, जो मार्गदर्शन की भूमिका अपनाते हैं। आज मुश्किल यह है कि लोग संकेतों और संकेत बताने वालों को ही मंजिल मान लेते हैं। उसी की पूजा शुरू कर देते हैं। वहीं से संप्रदाय की चारदीवारी और बाड़ेबंदी बननी शुरू हो जाती है। फिर एक-दूसरे को गलत सिद्ध करने की रणनीति बनने लगती है। संघर्ष, विद्वेष और नफरत की अपनी दुनिया कायम होने लगती है जबकि उन संकेतों की सार्थकता इतनी ही है कि हम चलें और दिशा-बोध के लिए उनका सहारा लें। साथ ही गलत संकेतों के प्रति सावधान भी रहें।
धर्मशास्त्र, गुरु और परंपराएं भी मात्र संकेत करती हैं सत्य की ओर। जबकि सत्य प्राप्ति का माध्यम हम स्वयं हैं। यह समझना है कि पूजा-उपासना विधियां, अनुष्ठान, तिलक-छापे की अर्थवत्ता कहां तक है और कहां जाकर ये निरर्थक हो जाते हैं। इस भेद-रेखा को न समझने का परिणाम है कि धर्म के नाम पर कितने तथाकथित गुरु और भगवान अपने-अपने मठ, आश्रम, संप्रदाय और गुरुडम का पोषण करने के लिए भोली जनता का शोषण करते आ रहे हैं। उनकी खंडित दृष्टियों में खोजना चाहते हैं सत्य को। उन्हीं में पाना चाहते हैं अपने भीतर मौजूद भगवान को। यह ऐसे संभव नहीं है।
-आचार्य रूपचन्द्र