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चारदीवारी मे बँधा हुआ विचार सत्य को नहीं छू सकता

संसार का हर व्यक्ति कामयाबी पाने के लिए बेचैन है। जो जिस भी क्षेत्र में है, वह अपनी पहचान कायम करना चाहता है। यह बेचैनी स्वाभाविक है। मुश्किल यह है कि आगे जाने की कोशिश में बहुत कुछ पीछे छूटता चला जाता है। आप चाहे भी तो उसे पकड़कर नहीं रख सकते। पकड़ने का मतलब है कि आपको यही ठहर जाना पड़ेगा। तब आप ही समय से पीछे छूट जाएंगे।

छूटा तो था राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर का भी। राम वनवास गए तो घर परिवार, राजपाट पीछे छूट गया। कृष्ण आगे बढ़े तो देवकी-वासुदेव, नंद-यशोदा, राधा, बलराम, सुदामा छूट गए। बुद्ध और महावीर साधना के पथ पर आगे बढ़े तो उनसे भी बहुत कुछ पीछे छूट गया। ध्यान दें, एक भी ऐसा आख्यान नहीं है कि इनमें से कोई भी अवसाद में गए हो। वे आनंद के साथ अंदर और बाहर की दुनिया की दूरी को तय करते रहे।

यह छूटना, दरअसल छूटना नहीं है। यह त्याग है। त्याग निश्चित तौर पर हमेशा सुपरिणाम लाता है। राम हो या कृष्ण, बुद्ध हो या महावीर, ये हमेशा जाग्रत अवस्था में रहते थे। यह अवस्था कल्याण और निर्वाण की होती है। अगर हम भी मनुष्यता की परवाह करते हुए आगे बढ़ते हैं तो समझिए कि हम जागे हुए हैं। यह जागना एक तरह की आत्म-दृष्टि है। इसके आते ही न केवल मन के विकार नष्ट होते हैं बल्कि दुखों का भी अंत होता है। परमात्मा तक पहुंचने का भी यह एक सुगम मार्ग है।

भगवान महावीर ने विशेष जोर देकर कहा था, ‘सुत्तेसु यावि पडिबुद्ध जीवी, न वीससे पंडिए आसुपन्ने।’ अर्थात ‘सारा संसार मोह-निद्रा में सो रहा है। सौभाग्य से तुम जाग गए हो। तुम्हें आत्म-दृष्टि मिली है, किंतु सारे संसार को सोया हुआ देखकर तुम बापस सो मत जाना।’ अगर हम महावीर के संकेत को समझ सके तो तय मानिए कि जीवन का हर अनुभव हमें सिद्धि की तरफ ले जाने में मदद करेगा। हम अपने लिए या संसार के लिए जो कुछ अच्छा पाना चाहते हैं, उसमें कामयाबी मिलेगी। बस अपने अनुभवों को सहलाने, संभालने और सुपरिणामों को समझने का गुर आना चाहिए। विश्व प्रसिद्ध कवि पाब्लो नेरुदा ने लिखा है कि उन्होंने किसी पुस्तक से कविता लिखने का गुर नहीं सीखा। जीवन के गहन अनुभवों ने उन्हें सूझ दी है। इसलिए तो वे कहने का साहस रखते हैं, ‘जियो आज, जीवन रचो आज / उठाओ आज जोखिम / मत दो मरने खुद को आज धीरे-धीरे मत भूलो खुश रहना।’ खुश रहना हमारी शुभ भावना का घोंतक है जो संकल्प और सत्कर्म का विचार देता है।

यह भी याद रखें कि जो विचार अपने को चारदीवारी में बांध लेता है वह कभी पनप नहीं सकता। जैसे बंधा पानी सागर तक नहीं पहुंच सकता, वैसे ही बंधा हुआ विचार सत्य को नहीं छू सकता। पानी चलता रहे तो सागर बन जाता है। विचार गतिशील रहे तो सत्य बन जाता है। सागर की अनंतता के सामने खड़े होने पर कुएं की क्षुद्रता स्वयं टूट जाती है, किंतु उसके दर्शन तभी संभव हैं जब कुएं का आग्रह टूटे। मन में जिज्ञासा उभरे, इसके लिए जरूरी है कि हम कही भी अपने को बांधे नहीं। तब खुद ही महसूस करेंगे कि कामयाबी पाने की बेचैनी आत्म-दृष्टि में विलीन हो रही है। पीछे जो कुछ छूट रहा है, वह आपसे मिलने के लिए बेचैन है, लेकिन हर हाल में जागते रहना जरूरी है।

-आचार्य रूपचन्द्र

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